राज्यव्यवस्था में लोक कल्याणकारी राज्य ( #Welfare #State ) की अवधारणा

 

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राज्य की परिभाषा- राजनीतिक



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कल्याणकारी राज्य अवधारणा का उदय -

  1. उदारवाद अवधारणा में निहित है। जहां -
  2. व्यक्ति विशेष तथा 
  3. व्यक्ति समूह को प्राथमिक विषय में रखकर नीतियां निर्धारण की जाती है।

उदारवाद -

  1. व्यक्तिवाद एवं 
  2. साम्यवाद कि मध्य स्थिति संतुलन की अवधारणा है 
  3. जहां पर व्यक्ति स्वतंत्रता एवं 
  4. आर्थिक सुरक्षा के मध्य सामंजस्य स्थापित किया जाता है।

एक कल्याणकारी राज्य -

  1. साम्यवाद एवं 
  2. व्यक्तिवाद के मध्य एक समझौता प्रदान करता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लोक कल्याणकारी राज्य -

  1. उदारवाद एवं 
  2. समाजवाद का एक संतुलित मिश्रण है।

  • Note- हमे इस तथ्य पर ध्यान देना है की उदारवाद व्यक्तिवाद एवं लोकतांत्रिक सिद्धांत का सकारात्मक संतुलन है।
  • व्यक्तिवाद सिद्धांत में -

  1. व्यक्तिगत स्वतंत्रता केंद्र बिंदु है 
  2. जहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता को विषयगत रख प्रत्येक कार्यविधि को संपन्न किया जाता है 
  3. किंतु उदारवाद सिद्धांत के अंतर्गत इसकी एक निश्चित परिधि है 
  4. जहां पर यदि किसी प्रकार से लोकतांत्रिक अवधारणा एवं मूल्य परिधि अतिक्रमण होता है 
  5. तब राज्य उसमें हस्तक्षेप कर 
  6. एक संतुलित समझौते की स्थिति का निर्माण करता है।


इसका प्रमुख एवं सैद्धांतिक उदाहरण- 

  1. हमको भारतीय संविधान के भाग 3 मौलिक अधिकार में मिलता है जहां -
  2. संपूर्ण मौलिक अधिकार का चरित्र नकारात्मक तथा 
  3. राज्य के विरुद्ध 
  4. व्यक्ति को प्राथमिकता देखकर 
  5. उसके अधिकारों को राज्य के विरुद्ध सुनिश्चित किया गया है।


किंतु जब-जब व्यक्ति लोकतांत्रिक मूल्यों की परिधि का अतिक्रमण करता है 
तब -

  1. राज्य हस्तक्षेप कर 
  2. अपवाद के रूप में प्रतिबंध निरूपित करता है।
  3. लोक कल्याणकारी दर्शन के अंतर्गत राज्य विशेष रूप में अपने नागरिकों को -

  • सामाजिक,
  • आर्थिक एवं
  • राजनीतिक सुरक्षा प्रदान करेगा।

आर्थिक सुरक्षा में -

  1. न्यूनतम आवश्यकता पूर्ति,
  2. रोजगार के अवसरों का सृजन एवं 
  3. आर्थिक समानता सामंजस्य स्थापित करता है।


राजनीतिक सुरक्षा में -

  1. शासन में जनमानस की भागीदारी,
  2. लोकहित शासन स्थापना एवं 
  3. स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव।


सामाजिक सुरक्षा में -

  1. विषमताओं को समाप्त कर 
  2. समता की स्थापना
  3. अस्पृश्यता का अंत
  4. सामाजिक संस्थाओं की स्थापना एवं 
  5. संस्थागत मूल्यों का पोषण।

  • कार्य के परिपेक्ष में लोक कल्याणकारी राज्य के कार्यों को क्रमशाह दो श्रेणी में विभाजित किया जाता है -
          


  1. प्रथम अनिवार्य कार्य तथा 
  2. द्वितीय अच्छे कार्य।


अनिवार्य कार्य के अंतर्गत -

  1. आंतरिक शांति और सुरक्षा,
  2. अर्थव्यवस्था मुद्रा प्रबंध,
  3. कर संग्रह,
  4. न्याय व्यवस्था,
  5. बाह्य आक्रमण सुरक्षा,
  6. शिक्षा,
  7. स्वास्थ्य,
  8. नियोजन के अवसरों का सृजन करना,
  9. सामाजिक अस्पृश्यता का अंत,
  10. कृषि संवर्धन,
  11. औद्योगिक विकास,
  12. संचार एवं
  13. परिवहन व्यवस्था।

अनिवार्य कार्य से इतर अन्य कार्य राज्य के ऐच्छिक कार्य में आते हैं।

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कृपया ध्यान दें-

  • कल्याणकारी राज्य में "आधुनिक राज्य उत्तरदायित्व परिकल्पना" का समावेश जिस प्रतिशत के साथ वृद्धि करता है उसी अनुपात में कल्याणकारी राज्य में ऐच्छिक कार्य अनिवार्य कार्य में परिवर्तित होते हैं।
  • उदाहरण के लिए निवर्तमान परिकल्पना में कृषि, संचार, परिवहन, नियोजन के अवसर, स्वास्थ्य ऐच्छिक कार्य की श्रेणी में आते थे जो कि वर्तमान में कल्याणकारी राज्य के अवश्यंभावी स्तंभ बन चुके हैं।
  • इस प्रकार कोई एक निश्चित प्रतिशत कार्य विभाजन श्रेणी कल्याणकारी राज्य में नहीं है। 

  1. नए कार्यों का सृजन ऐच्छिक कार्य में होता रहता है तथा 
  2. उत्तरदायित्व राज्य में निवर्तमान ऐच्छिक कार्य वर्तमान के अनिवार्य कार्य का स्थान लेते हैं।


इस प्रकार राज्य कल्याणकारी राज्य अवधारणा स्थापना के लिए

  1. कल्याणकारी राज्य दर्शन तथा 
  2. अनिवार्य एवं ऐच्छिक कार्य सूची उद्देश्य प्राप्ति का अनुसरण करते हुए 
  3. नागरिकों के लिए व्यापक सामाजिक सेवाओं की व्यवस्था करता है 
  4. जिसके माध्यम से न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति 
  5. समानता के स्तर पर की जा सके


परिणाम स्वरूप -
  1. मनुष्य का मानव संसाधन के रूप में विकास हो तथा 
  2. वह अपनी योग्यता के आधार पर जीवन संवर्धन का कार्य कर सकें।



इस प्रकार कल्याणकारी राज्य निरंतर प्रयास में रहता है की -

  1. व्यक्ति उदारवाद तथा 
  2. समाजवाद के मध्य एक अनुपातिक संतुलन स्थापित रहे एवं 
  3. कल्याणकारी राज्य की उद्देश्य प्राप्ति इन दोनों आधारभूत स्तंभों के माध्यम से प्राप्त होती रहे।


अध्ययन की दृष्टि से कल्याणकारी राज्य की परिधि एवं परिभाषा निश्चित नहीं हो सकती क्योंकि -
  1. रूपांतरित परिस्थितियों के आधार पर राज्य के नवीन दायित्वों का सृजन होता है एवं 
  2. आवश्यकता के अनुसार, प्राकृतिक न्याय व्यवस्था सिद्धांत का पालन करते हुए, कुछ दायित्व समय के साथ समाप्त हो जाते हैं।

कल्याणकारी राज्य के 
  1. चरित्र एवं स्वरूप को यदि और अधिक परिष्कृत किया जा सकता है तो उसका एक मूलाधार -
  2. नागरिकों के द्वारा स्वयं की स्वतंत्रता का पालन राज्य संगत दायित्व के आधार  पर निर्वहन किया जाए, जिसका उल्लेख भारतीय संविधान के भाग 4 (A) में मिलता है, 
  3. तो राज्य द्वारा प्रतिबंध लगाकर लोक कल्याण अवधारणा के रूप को परिष्कृत ना करके एक सकारात्मक धारा प्रवाह में नागरिकों के द्वारा ही परिष्कृत किया जा सकता है

अंत का वृतांत यह निकलकर आता है कि -
  1. वर्तमान समय में लोक कल्याणकारी राज्य समय की अवश्यंभावी आवश्यकता है। 
  2. प्राकृतिक न्याय व्यवस्था सिद्धांत  का पालन करते हुए इसका भविष्य में परिष्कृत होना निश्चित है।
  • आवश्यकता दायित्व बोध के साथ भविष्य के दायित्व का निर्वहन करने की है।

धन्यवाद।

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