राज्य की परिभाषा-राजनीतिक
गार्नर (James W. Garner) -
"राज्य संख्या में कम अथवा अधिक व्यक्तियों का ऐसा संगठन है जो किसी प्रदेश के निश्चित भूभाग में स्थाई रूप से रहता है जो बाहरी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्र या लगभग स्वतंत्र हो जिसका एक ऐसा संगठित शासन हो जिस के आदेशों का पालन नागरिकों का विशाल समुदाय स्वभावत: करता हूं"
गिलक्रिस्ट (G.R. Gilchirst)-
"राज्य उसे कहते हैं जहां कुछ लोग एक निश्चित प्रदेश में एक सरकार के अधीन संगठित होते हैं यह सरकार आंतरिक विषयों में अपनी जनता की संप्रभुता को प्रकट करती है एवं वह आइए विषयों में अन्य सरकारों से स्वतंत्र होती है।"
गिलक्रिस्ट की परिभाषा में प्रमुख रूप से तीन अंगों पर विशेष ध्यान दे रहे हैं -
1. प्रथम भूमि खंड अथवा प्रदेश
2. दूसरा लोगों का समूह तथा
3. तीसरा संप्रभुता।
वास्तव में एक संपूर्ण एवं परिपक्व परिभाषा का गठन गार्नर के द्वारा किया गया है जिसमें वह प्रमुख रूप से राज्य के 4 अंगों का वर्णन करते है-
1. लोगों का समूह होता है
2. एक निश्चित भूभाग अर्थात प्रदेश
3. संगठित शासन अर्थात सरकार एवं अंतिम
4. राज्य की संप्रभुता
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लोगों का समूह(Group of People)
ध्यान दीजिए कि राज्य की स्थापना मनुष्य के लिए की गई है।
प्राकृतिकविधि विधान मे प्रकृति अपने अनुसार इस सृष्टि पर जीवन को चलाएं मान रखती है किंतु वह मनुष्य उन्मुख नहीं है। अर्थात आधुनिक राज्य की परिकल्पना-
1. मनुष्य द्वारा जनित एवं
2. मनुष्य उन्मुख है।
इसलिए महत्वपूर्ण है कि राज्य के प्रथम घटक में लोगों का समूह अर्थात मनुष्य एक इकाई के रूप में उपस्थित एवं विद्यमान होना चाहिए।
यह चर्चा एवं शोध का विषय रहा है कि वास्तव में एक राज्य में लोगों की जनसंख्या कितनी होनी चाहिए ।
1. प्लेटो ने लोगों के समूह की संख्या 5040 बताई है
2. जबकि रूसो ने यह संख्या 10000 की बताई है
3. अरस्तु के अनुसार राज्य की जनसंख्या न तो इतनी विशाल हो की प्रशासनिक समस्या बन जाए और ना ही इतनी न्यूनतम हो की जनसंख्या प्रभावहीन हो जाए अरस्तु ने भी राज्य के लिए एक लाख की जनसंख्या को अत्यधिक बताया है।
आज जब भारत की जनसंख्या ही 140 करोड़ तथा चीन की जनसंख्या 155 करोड़ के लगभग है तब भूतकाल में जनसंख्या कितनी हो यह प्रस्ताव अर्थहीन हो जाते है। महत्वपूर्ण -
1. संसाधनों की उपलब्धता,
2. उनकी वरीयता,
3. मितव्ययिता तथा
4. राज्य का सुचारू संगठन है जो जनसंख्या को राज्य के लिए एक शक्ति बल के रूप में परिवर्तित करता है।
निश्चित भूभाग (Definite territory)-
राज्य की परिभाषा में स्थापना में भूमि खंड का होना तथा निश्चित भूमि खंड का होना उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। जब हम निश्चित भूभाग शब्द का प्रयोग भू-भाग के साथ करते हैं तो वास्तव में हम उस प्रदेश या राज्य की सीमाओं को चिन्हित करते हुए राज्य प्रदेश का उल्लेख कर रहे हैं अर्थात राज्य के पास अपनी निश्चित सीमा क्षेत्र /भूभाग क्षेत्र उसके दैनिक -
1. प्रशासनिक,
2. राजनैतिक एवं
3. अधिकारी गतिविधियों के लिए उपलब्ध रहना चाहिए।
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सरकार अर्थात विधि तंत्र/ कार्यकारी तंत्र (Government/ Legal system)-
राज्य को अस्तित्व वान तथा उसमें स्थायित्व बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसके पास एक ऐसा तंत्र होना चाहिए जोकि उसके प्रतिदिन नित्य नैमित्तिक कार्यों का निष्पक्ष निष्पादन करने के लिए-
1. विधि,
2. नियमन तथा
3. नियम का निर्माण कर सके । लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि वह तंत्र जनमानस के द्वारा स्वीकार्य तथा विधि द्वारा स्थापित होना चाहिए अर्थात-
वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया जिसके के अंतर्गत जनमानस के द्वारा अपने अधिकार उस विधि तंत्र को प्रतिनिधि के रूप में समर्पित करें।
इसे ही सरकार कहा गया है वर्तमान समय में यदि हम उदाहरण के रूप में इसको समझे तो भारत की संघीय विधि व्यवस्था में अलग-अलग राज्यों में तथा राष्ट्रीय स्तर पर 5 वर्ष के लिए विधि द्वारा स्थापित सरकार का गठन किया जाता है जिसमें अप्रत्यक्ष लोकतंत्र के अंतर्गत भारत गणराज्य के लोग राज्य संचालन करने का दायित्व संबंधित चुनी हुई सरकार को 5 वर्षों के लिए देते हैं।
यदि कार्यकारी तंत्र विधि स्थापित एवं स्वीकार्य नहीं है तो वह निरंकुश एवं अराजक तंत्र में परिवर्तित होकर राज्य के विनाश का कारण बनेगा।
संप्रभुता (Sovereignty)-
संप्रभुता राज्य के घटक में सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक है क्योंकि संप्रभुता के कारण है राज्य अस्तित्व में आता है एवं उसकी परिभाषा को परिभाषित किया जाता है अर्थात उसको पहचान दिलाता है।
गैटिल- संप्रभुता ही राज्य का वह लक्षण है जो इससे अन्य समुदायों से भिन्न करता है।
लास्की- संप्रभुता के कारण ही राज्य अन्य मानव समुदायों से भिन्न है।
भारतीय दर्शन के अनुसार संप्रभुता का अर्थ स्वयं में प्रभुत्व अर्थात सर्वोच्च शक्ति को विद्यमान करना है जबकि अंग्रेजी भाषा में संप्रभुता को sovereignty कहा गया है जो कि लैटिन भाषा के superanus शब्द से आया है जिसका अर्थ सुप्रीम पावर अर्थात सर्वोच्च शक्ति होता है।
संप्रभुता को परिभाषित करना राजनीतिक विज्ञान का एक जटिल विषय रहा है किंतु इसका महत्व सर्वोच्च रहा है परिणाम स्वरूप इसको अनेक विचारधाराओं के संग्रह से समझाया एवं समझा गया है।
अंतिम रूप से संप्रभुता राज्य शासन में राज्य की वह सर्वोच्च एवं अंतिम शक्ति है जोकि सरकार को राज्य के कार्य निष्पादन करने में शक्तिवान बनाती है।
इस प्रकार अंतिम रूप से -
"संप्रभुता राज्य का वह घटक है जिसमें राज्य शासन व्यवस्था, आंतरिक एवंबाह्य रूप से राज्य संबंधित विषयों में, एक सर्वोच्च तथा अंतिम शक्ति बल के रूप में कार्य करती है।
स्पष्ट रूप से इस प्रकार आंतरिक एवं बाहरी कार्य निष्पादन में राज्य कार्यकारी बल के ऊपर अन्य गैर राज्य बल/ शक्ति का प्रभाव तथा हस्तक्षेप नहीं होता है।"
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एक मौलिक उदाहरण का उल्लेख करते हुए भूतकाल में ऐसे विषय सामने आए जब रक्षा संबंधित अनुबंधों में बाह्य शक्ति का हस्तक्षेप आर्थिक लाभ के लिए भारतीय जनमानस के ध्यान में आए तथा भ्रष्टाचार संबंधी विषय न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत किए गए। यह स्पष्ट रूप से भारतीय संप्रभुता का उल्लंघन था।
संप्रभुता का क्रियान्वयन राज्य के चरित के साथ परिवर्तित होता है जिसमें अलोकतांत्रिक राज्य में संप्रभुता एक सर्वोच्च कार्यकारी बल में परिवर्तित होता है जहां पर राज्य की इच्छा ही सर्वोच्च है तथा राज्य की इच्छा के अनुसार ही वहां के नागरिकों पर एवं समुदायों पर निरंकुश शासन किया जाता है।
जबकि लोकतांत्रिक राज्य क्षेत्र में संप्रभुता राज्य का वह कार्यकारी बल है जो कि राज्य को राज्य के हित के आंतरिक एवं बाह्य विषय पर मौलिक, सर्वोच्च तथा अंतिम शक्ति प्रदान करता है।
संप्रभुता के अपवाद के उदाहरण उदाहरण -
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वैधानिक (Legal)-
भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में यदि हम संवैधानिक राज्य परिभाषा का अनुसरण करें तो, न्यायपालिका राज्य की परिभाषा परिधि में नहीं आती है इस प्रकार वह राज्य शासन में संप्रभुता की सर्वोच्च एवं अंतिम शक्ति विधायिका / सरकार में निहित नहीं करती है । क्योंकि जब जब भारतीय विधायिका द्वारा कोई ऐसा निर्णय लिया गया है जो कि आंतरिक रूप से लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध है तो न्यायपालिका द्वारा, संसद की इच्छा के विरुद्ध, उसको निरस्त भी किया गया है अर्थात राज्य शासन प्रणाली /सरकार कार्यकारी बल के पास सर्वोच्च एवं अंतिम शक्ति नहीं है।
अवैधानिक (Illigal)-
विगत कुछ समय मे भारत सरकार की गुप्तचर संस्थाओं के द्वारा भारतीय जनमानस के समक्ष यह तथ्य सामने आया की एक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र के अंतर्गत सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग करते हुए भारत में अनेकअवसरों पर-
1. धार्मिक
2. जातिगत एवं
3. अतिक्रमण वादी उन्माद उत्पन्न करने का प्रयास किया गया।
अर्थात एक बाह्य शक्ति भारत के आंतरिक एवं बाह्य विषयों में हस्तक्षेप करने का प्रयास कर रही है
यदि भारत राज्य के द्वारा एक उचित प्रतिक्रियावादी प्रति-उत्तर नहीं दिया जाता तब यह संप्रभुता का खंडन माना जाएगा।
इससे स्पष्ट होता है की संप्रभुता है एक प्रतिक्रियावादी तत्व है।
अर्थात ऐसा कोई भी बल जो राज्य शक्ति से बाहर का है तथा राज्य की क्रियाविधि मैं हस्तक्षेप कर रहा है अब ऐसी स्थिति में यदि उसे उचित प्रत्युत्तर राज्य के द्वारा नहीं दिया जाता तब ही यह संप्रभुता का खंडन माना जाएगा।
संप्रभुता के प्रकार-
1. आंतरिक संप्रभुता एवं
2. बाह्य संप्रभुता।
आंतरिक संप्रभुता राज्य की सीमा क्षेत्र के अंतर्गत कार्य करती है जबकि वह बाह्य संप्रभुता राज्य की सीमा क्षेत्र से बाहर कार्य करती है जहां पर कोई अन्य शक्ति उसके कार्य निष्पादन में व्यवधान उत्पन्न ना कर सके जोकि सुनिश्चित करता है कि राज्य किसी दूसरी महाशक्ति के अधीन कार्य नहीं कर रहा है।
संप्रभुता के घटक-
1. मौलिकता / Originality
2. निरंकुशता / Absolutenesd
3. सार्वभौमिक / Universal
4. स्थायीत्व / Permanent
5. अपृथक्करणीयता Inseparable
6. अविभाज्य / Indivisible
7. अनन्यता / Exclusivity
- अंतिम रूप से यदि राज्य का चरित्र अलोकतांत्रिक एवं अराजक है तो संप्रभुता व्यक्ति विशेष पद के लिए कार्य करती है
- जबकि यदि राज्य का चरित्र लोकतांत्रिक व्यवस्था का है तब संप्रभुता जन सम-प्रभुत्व के लिए कार्य करती है।
स्वायत्त एवं संप्रभुता संस्था में अंतर-
इस तथ्य को हम इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि -
- स्वायत्तता संस्था में अंतिम निर्णय लेने की शक्ति उस संस्था के पास नहीं होती है यद्यपि अंतिम निर्णय संबंधित संस्था के द्वारा आ सकता है लेकिन वह सहमति अथवा दिशा निर्देश लेने के पश्चात ही क्रियान्वित होगा
- जबकि संप्रभुता में सर्वोच्च शक्ति एवं अंतिम शक्ति संबंधित संस्था के पास होती है।
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